कहां खो गया फूल रथ, कहां गुम हो गया जोगी, कहां गायब हो गई सिंह ड्योढ़ी, कहां चला गया जिया डेरा..?

0  आधुनिकता ने ग्रहण लगा दिया बस्तर की वैभवशाली समृद्ध परंपरा को 
(अर्जुन झा) जगदलपुर। कहां है दशहरे का फूल रथ, कहां है जोगी, कहां है सिंह ड्योढ़ी, कहां है जिया डेरा, कहां है काछन देवी..???
चीख चीखकर पूछ रही है हमारे अतीत की सीधी सरल बस्तरिहा परंपरा। अब तो सब कुछ भूली बिसरी यादें और सुनी हुई बातें लगती हैं न, जैसे इतिहास की बात हो। 700 साल पुरानी परंपरा जब इस तरह तिल तिल कर दम तोड़ती दिख है तब टीस से दिल भर जाता है और हम ऐसा होते देख भी रहे हैं। हमारी आने वाली पीढ़ियां अपने दादा- दादी और नाना- नानी की जुबानी बस्तर दशहरा के वैभव की कहानी ही सुन पाएंगे, ऐसा आभास होने लगा है। ज्यादा नही सिर्फ 10-15 साल पीछे चलते हैं। 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे की एक एक तस्वीर आंखों के सामने घूम जाती है।आखरी चरण में जब काछन देवी दशहरे की अनुमति देती है, तब उन्माद सौ गुना बढ़ जाता है और 5 दिवसीय फूल रथ की परिक्रमा, जोगी बिठाई, मावली परघाव, भीतर रैनी, बाहर रैनी, मुरिया दरबार और अंत मे देवी की बिदाई। अब सब सपने की तरह लगता है। हाल के दिनों में आदिवासी परंपरा के इतर गरबे की भरमार हो चली है । पारंपरिक वस्त्रों में नज़र आने वाली युवतियां अब सिरहसार की ओर जाती नहीं दिखती उसे तो घाघरा चोली में किसी लॉन में पहुंचना होता है, जहां गरबा का चल रहा होता है।यही है संक्रमण काल, जिसे हमारी पीढ़ी देख रही है। शायद आने वाले वर्षों में आप रथ के सामने आंगा देव की बजाय गरबा करते युवक युवतियों को देखने लगें। आदिवासी संस्कृति पर कुठाराघात हो रहा है रथ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने की तैयारी हो रही है लेकिन हमारे युवा गरबे की संस्कृति को लेकर चिंतित हैं, उन्हे कपड़े, उनके नृत्य, उनके व्यवहार की ज्यादा चिंता है। हालांकि रास गरबा भी भारतीय पुरातन संस्कृति और हमारे पुराणों का हिस्सा है। गरबा देवी स्तुति गान है, जिसमें लीन होकर लोग नाचने थिरकने लगते हैं। भगवान कृष्ण भी गोपियों संग गरबा खेलते और रास रचाते थे। सो हम गरबा का कतई विरोध नहीं कर रहे हैं, मगर दुख इस बात का है कि आम बस्तरिहा युवा अपनी मूल प्राचीन संस्कृति से विमुख हो रहा है। ठीक है वे भी गरबा खेलें, देवी मां की आराधना में लीन हो जाएं, मगर अपनी संस्कृति को तो न बिसराएं। वे बस्तर दशहरे का पराभव रोकने के लिए भी कदम उठाएं।

घटती जा रही दिव्यता

आज भले ही बस्तर दशहरा भव्यता के साथ मनाया जाने लगा है। इसकी चर्चा पूरी दुनिया में हो रही हो, विदेशी सैलानी भी इसमें शामिल होने पहुंचने लगे हैं, मगर यह भी कड़वा सच है कि धीरे- धीरे बस्तर दशहरे की दिव्यता घटती जा रही है। अब वो दृश्य नजर नहीं आता जो 10-20 साल पहले दिखता था। आधा समारोह तो मीना बाजार लील लेता है। बची खुची संस्कृति गरबे की भेंट चढ़ रही है। पहले हाथ मे डंडे का फ्रेम धरे एक बूढ़ा खिलोने, प्लास्टिक के कैमरे, फुग्गे और लकड़ी व बांस की बांसुरी घूम घूमकर बेचता नज़र आता था, अब वही गरबे के डंडे बेच रहा है।रावटी झूले की जगह इलेक्ट्रिक हवाई झूले ने ले ली है। रथ निर्माण में सिर्फ बढ़ई की कारीगरी होती थी, अब तो लोहार भी कील ठोंकने लगे हैं। कुल मिलाकर परंपरा दम तोड़ रही है और हम मूक दर्शक बने बैठे हैं।वह दिन दूर नही जब रथ कब आया कब गया पता ही नहीं चलेगा। हमारी युवा पीढ़ी तो मखमली घास वाली लॉन में डांडिया रास खेलने में व्यस्त है। बस्तर की युवा पीढ़ी को अपनी समृद्ध संस्कृति की रक्षा के लिए आगे आना होगा। अन्यथा जिस तरह आदिवासी अपने मूल धर्म पथ से विलग होते जा रहे हैं, दूसरे धर्म को आत्मसात करते या करवाए जा रहे हैं, उसी तरह संस्कृति के भी विलोप का खतरा है।

सांसद कश्यप पर बड़ी जिम्मेदारी

आदिवासियों को उनकी मूल संस्कृति और परंपराओं से विमुख करने की साजिश की एक बड़ी सच्चाई हमारे सामने है। कुछ विघ्न संतोषी लोग आदिवासियों को गणेश पूजा न मनाने की चेतावनी हर साल देते हैं। ऐसे लोग दलील देते हैं कि गणेश पूजा आदिवासियों के धर्म का हिस्सा नहीं है। ये लोग भूल जाते हैं कि आदिवासी जिस बड़ा देव या बूढ़ादेव के रूप में भगवान शंकर की पूजा करते हैं, भगवान गणेश उसी भोलेबाबा के पुत्र हैं। बारसूर के पहाड़ पर भगवान गणेश की दुनिया की सबसे विशाल प्रतिमा स्थापित करने वाले बस्तर के आदिवासी पुरखे ही थे। सच ही कहा है हमारे युवा सांसद महेश कश्यप ने कि बारसूर कि गणेश प्रतिमा को हमारे पुरखों ने ही स्थापित किया था, बाहरी लोगों और गैर आदिवासियों ने यहां आकर प्रतिमा को स्थापित नहीं किया। सांसद महेश कश्यप का यह कथन भी सौ फीसदी सच है कि पूरे बस्तर संभाग में हिंदू देवी देवताओं की सैकड़ों प्राचीन प्रतिमाएं जगह जगह स्थापित हैं, भगवान श्रीराम अपने वनवास काल का ज्यादातर समय बस्तर के जंगलों में ही व्यतीत किया था, उन्हें जूठे बेर खिलाने वाली माता शबरी आदिवासी ही थी। सांसद महेश कश्यप की यह दलील भी आदिवासियों को भड़काने व भटकाने वाले लोगों के गाल पर करारा तमाचा है कि अगर आदिवासी हिंदू नहीं हैं तो वे अपने नाम देवी देवताओं के नाम पर क्यों रखते हैं? अपने नाम के पीछे राम व देवी क्यों लगाते हैं? सांसद ने अपने नाम का ही बड़ा उदाहरण सामने रखा था कि महेश वस्तुतः भगवान शंकर का ही एक नाम है।लब्बोलुआब यही है कि आज बस्तर के हर युवा को सांसद महेश कश्यप की इस सोच को आत्मसात करने की जरूरत है। सबसे बड़ी बात यह भी है कि सांसद महेश कश्यप जैसा आदिवासी हित चिंतक युवा राजनेता पहली बार बस्तर दशहरा समिति का बना है। ऐसे में सांसद श्री कश्यप की भी बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि वे बस्तर दशहरा की दिव्यता को वापस लाने और भटकती युवा पीढ़ी को इससे जोड़ने के लिए ठोस पहल करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *