0 जनजातीय साहित्य महोत्सव के दौरान कैनवास और जमीन पर रंगों की कलाकारी
0 चित्रकारी, रंगोली, रजवार, गोदना कला में उकेरी जा रही जनजातीय संस्कृति
रायपुर। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में तीन दिवसीय राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव का आयोजन हो रहा है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में आयोजित इस महोत्सव में जनजातीय विषयों के विशेषज्ञ, शोधार्थी, अध्येता, साहित्यकार शिरकत कर रहे हैं। वहीं चित्रकार, रंगोली कलाकार, रजवार और गोदना कला के माहिर कलाकार अपनी प्रतिभा को कैनवास, जमीन, कार्डबोर्ड और कपड़ों पर उकेर रहे हैं। इन कलाकारों में से अधिकतर अपनी कलाकृति में जनजातीय संस्कृति को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ आदिम जाति अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान की ओर से आयोजित राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सन में रंगों की एक अलग दुनिया भी लोगों के सामने प्रदर्शित हो रही है। यहां कैनवास पर कोई जनजातीय महिला-पुरुष की चेहरे को जीवंत रूप से उकेर रहा है, तो कोई आदिवासी नृत्य शैलियों को दिखाने का प्रयास कर रहा है। जनजातीय आभूषण, खान-पान, जीवनशैली, रहवास, बस्तर और सरगुजा की मनोरम प्रकृति से लेकर टाइगर ब्वॉय चेंदरू और क्रांति के महानायक वीर गुंडाधुर, शहीद वीर नारायण सिंह जैसे महानायकों को भी तस्वीरों और रंगोली में उकेरा जा रहा है।
जनजातीय साहित्य महोत्सव के दौरान महासमुंद से आए सुशांत कुमार सिदार कैनवास पर रंग से एक तस्वीर को आकार देते वारली बना रहे थे। उन्होंने बताया कि वारली में मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की संस्कृति को दिखाया जाता है। इसमें कैनवास को रंगने के लिए लाल, काला और सफेद रंग का उपयोग अन्य रंगों की अपेक्षा अधिक होता है। सुशांत अपना करियर चित्रकारी में ही बनाना चाहते हैं। ऐसे में इस तरह के आयोजनों में मंच मिलने पर खुशी जताते हुए सुशांत सिदार कहते हैं कि यह मंच कलाकारों को प्रोत्साहित करने का काम कर रहा है। इस आयोजन के लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ शासन को धन्यवाद ज्ञापित किया।
इसी तरह रायपुर की दुर्गा साहू यहां पोट्रेट बनाती नजर आयीं। दुर्गा साहू ने बताया कि उन्होंने यू-ट्यूब से देखकर पेंटिंग बनाना सीखा है। अब भी अपनी पेंटिंग कला को निखारने की कोशिश कर रही हैं। दुर्गा पेंटिंग में ही करियर बनाना चाहती हैं। इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय से फाइन आर्ट्स से पीजी कर रहे अभिलाष देवांगन महोत्सव में पेंटिंग बना रहे हैं। अभिलाष अपनी प्रतिभा को लोगों तक पहुंचाने के लिए जनजातीय साहित्य महोत्सव को बड़ा मंच मान रहे हैं। उनका कहना है कि यहां जो व्यक्ति सुन-बोल भी नहीं पाता वो रंगों के जरिए अपनी बात, अपनी रचनात्मकता को लोगों तक पहुंचा पा रहा है।
विरासत में मिली कला को आगे बढ़ा रहे भोजराज धनगर बताते हैं कि उनके पिताजी श्री गोविंद धनगर कमर्शियल आर्टिस्ट हैं। पिताजी से ही बचपन से रंगों को कैनवास और अनेक आधार पर उकेरना सीखा है। फिर इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय से फाइन आर्ट्स से मास्टर डिग्री भी प्राप्त कर ली। अब इसी को करियर भी बना रहे, लेकिन भोजराज धनगर के लिए कला करियर से कहीं अधिक जुनून है। भोजराम धनगर ने महोत्सव को लेकर कहा कि ऐसे आयोजनों से कला क्षेत्र में जो काम हो रहा है वह लोगों तक पहुंचता है। जनजातीय साहित्य महोत्सव के लिए साधुवाद देते हुए उन्होंने आगे भी ऐसे आयोजनों की उम्मीद जताई।
इधर पेशे से इंजीनियर दीपक शर्मा रियलिस्टिक पेंटिंग बनाते नजर आए। उन्होंने बताया कि उन्हें पेंटिंग का शौक है। महोत्सव के दौरान दीपक अपनी पेंटिंग में गौर नृत्य, गोदना प्रथा को दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं खिलेन्द्र विश्वकर्मा ग्रामीण जनजीवन को अपनी पेंटिंग के माध्यम से दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। बारिश के पानी में भीगी झोपड़ी और लकड़ी के सहारे उसे टिकाकर रखने का जीवंत चित्रण उनकी पेंटिंग में नजर आया।
कार्डबोर्ड पर रजवार :
राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव में कला प्रदर्शनी और प्रतियोगिता के दौरान सरगुजा अंचल की रजवार शैली भी देखने को मिली। यहां स्टेट अवार्डी कलाकार श्रीमती प्रतिभा डहरवाल और उनके साथ उनसे प्रशिक्षण ले रहीं ए. पद्मावती, डॉली यादव, कौशल्या एवं कंचन कार्डबोर्ड पर रजवार उकेरती नजर आयीं। दरअसल रजवार मूल रूप से दीवार पर बनाई जाती है, लेकिन नया प्रयोग करते हुए अब इसे कार्डबोर्ड पर उकेरा जा रहा है। इसमें कार्डबोर्ड पर चिकनी मिट्टी, फेविकॉल की सहायता से अलग-अलग तरह की आकृति बनाई जाती है।
कपड़ों पर गोदना :
राष्ट्रीय जनजातीय महोत्सव में अपनी प्रतिभा को दिखाने छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर से पहुंचे कलाकार कपड़ों में गोदना कला को दर्शा रहे हैं। उनका कहना है कि अब नयी पीढ़ी शरीर पर गोदना बनवाने की ओर कम आकर्षित हो रही है। गोदना की जगह टैटू ने ले ली है, ऐसे में कपड़ों में गोदना कला को उकेरकर नए प्रयोग किए जा रहे हैं। लोग इसे पसंद भी कर रहे हैं।