0 मामला शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला मूली का
0 संवाददाता के कैमरे को देख भाग निकला कबाड़ी
(अर्जुन झा) बकावंड। विकासखंड बकावंड की शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला मूली के प्राचार्य ने शाला की 400 पुरानी टेबल कुर्सियों को कबाड़ी के हाथों बेच दिया। जबकि इन टेबल कुर्सियों की मरम्मत कराकर उन्हें फिर से उपयोग में लाया जा सकता था। वहीं इस संवाददाता के कैमरे को देखते ही कबाड़ी मौके से भाग निकला। जनपद पंचायत बकावंड के अंतर्गत शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय मूली संकुल केंद्र मूली के प्राचार्य दीपक देवांगन द्वारा स्कूल के छात्र छात्राओं के बैठने के उपयोग में लाई जाने वाली अच्छी कंडीशन वाली 400 टेबल कुर्सियों और बेंच को क्लास रुम्स से निकलवाया और कबाड़ी वाले को बुलाकर उन सभी फर्नीचर्स को बेच दिया गया। मूली संकुल केंद्र के कर्मचारियों ने स्कूल के पिछले भाग में ले जाकर 200 नग टेबल और 200 बेंच कुर्सियों समेत कुल 400 नग लोहे के फर्नीचर्स को कबाड़ी वालों हवाले कर दिया था। वहां इन टेबल, कुर्सियों और बेंचेज को हथौड़े से तोड़कर लोहे के स्ट्रक्चर से लकड़ी की सीट को तोड़कर अलग किया जा रहा था। जानकारी मिलने पर यह संवाददाता कैमरा लेकर वहां पहुंच गया। मामले की फोटो वीडियो बनाने पर कबाड़ी वाले सारा फर्नीचर छोड़कर भाग गए। लोहे के स्ट्रक्चर का ढेर एक जगह लगा दिया गया था।
बीईओ मिश्रा ने झाड़ा पल्ला
जब इस संवाददाता ने मूली स्कूल के फर्नीचर्स को कबाड़ी वाले हाथों बेचे जाने के संबंध में बकावंड के विकासखंड शिक्षा अधिकारी श्रीनिवास मिश्रा से चर्चा करनी चाही, तो वे पल्ला झाड़ते नजर आए। बीईओ श्रीनिवास मिश्रा ने साफ कह दिया कि यह मेरा जिम्मेदारी नहीं है, आप जिला शिक्षा अधिकारी भारती मैडम से जानकारी ले लीजिए। जबकि इस पूरे मामले में बीईओ श्री मिश्रा की ही पहली जिम्मेदारी बनती है। उनका प्रथम कर्तव्य बनता था कि वे तुरंत शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला मूली पहुंचते, फर्नीचर्स को कबाड़ियों के हाथों बिकने से रोकते और प्राचार्य दीपक देवांगन की करतूत से अपने वरिष्ठ अधिकारी जिला शिक्षा अधिकारी बस्तर को पूरे मामले की जानकारी देते। मगर बीईओ श्रीनिवास मिश्रा ने अपना दायित्व नहीं निभाया। वहीं प्रकरण में प्राचार्य दीपक देवांगन से चर्चा करने पर उन्होंने चुप्पी साध ली।
कराई जा सकती थी मरम्मत
जिन 400 नग कुर्सी, टेबल, बेंचेज को चंद रुपयों के लालच में कबाड़ी वालों के हवाले कर दिया गया, उनकी मामूली मरम्मत कराकर उन्हें नया स्वरूप दिया जा सकता था और फिर से काम लाया जा सकता था। कुर्सियों और बेंचेज की सीट की लकड़ी और टेबलों के ऊपर के लकड़ी से निर्मित पटरे भर को बदलवाने की जरूरत थी। कई कुर्सी, टेबलों और बेंचेज की स्क्रू, किलें ही निकली हुई थीं, जिन्हें आसानी से बदला जा सकता था। यह काम स्कूल स्टॉफ भी कर सकता था। वहीं कुर्सियों, बेंचों और टेबलों पर नई लकड़ी लगाने का काम गांव के ही किसी बढ़ई को बुलाकर कराया जा सकता था। बढ़ई ज्यादा से ज्यादा 700 रुपए प्रतिदिन की दर से मजदूरी लेता। वहीं साइज वाली लकड़ियां, स्क्रू और कीलें बाजार से खरीदकर लाई जा सकती थीं। इतनी रकम शाला विकास समिति मद से ली जा सकती थी, मगर इतनी सी भी जहमत प्रचार्य ने नहीं उठाई। एक सच्चाई तो यह भी है कि स्कूलों में जो फर्नीचर्स उपलब्ध कराए जाते हैं, वे निहायत ही घटिया स्तर के होते हैं। फर्नीचर आपूर्ति करने वालों से कमीशनखोरी के फेर में बड़े अधिकारी फर्नीचर्स की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते।