0 स्व. राजा प्रवीरचंद और रानी 1962 में होते थे रथ में सवार
(साधुराम दुल्हानी)
जगदलपुर। विश्व प्रसिद्ध दिवसीय बस्तर दशहरा का ऐतिहासिक पर्व में तत्कालीन स्व. राजा प्रवीरचंद भंजदेव एवं महारानी वेदवती 1962 में जब रथ पर सवार होकर मां दंतेश्वरी की कृपा से माढिय़ा आदिवासी 8 चक्कों के रथ का माटी रस्सी बांधकर नगर परिक्रमा करते थे तब बस्तरवासी दूर-दराज से आकर शहर के छतों में चढ़कर फूलों की वर्षा करते थे। उसके बाद एक बार स्व. राजा प्रवीरचंद के परिवार से भरतचंद भंजदेव महाराजा घोषित किए गए और वे रथ की परिक्रमा में उसी प्रकार बैठकर नगर परिक्रमा करते थे। यह बता दे कि बस्तर दशहरे की प्रमुख रथ परिक्रमा बाहर रैनी एवं अंदर रैनी के रूप में प्रसिद्ध है। लालबाग से मुख्य मार्गों के जब 8 चक्कों का फूल रथ पूरी सजावट के साथ राजमहल तक आने के समय पूरे बस्तरवासी अपनी-अपनी दुकानें शाम को बंद कर देते थे। उस दौरान रथ से कई बिजली के खंभे भी ध्वस्थ हो जतो थे। वर्तमान में महाराजा कमलचंद भंजदेव ने राजपरिवार के पदाधिकारी का दायित्व बखूभी निर्वहन कर रहे है। वे दशहरा उत्सव के हर आयोजन में शामिल होते है। बस्तर की रियासत देश का संविधान बनने के बाद समस्त रियासतों को समाप्त कर दिया गा था किंतु बस्तर में आदिवासियों के मसीहा राजा प्रवीरचंद भंजदेव अब पदस्थ होने के बाद भी गालीकांड में मृत्यु तक वे आदिवासियों व वनवासियों में महाराजा ही बने रहे। वर्तमान में बस्तर दशहरा प्रदेश सरकारों द्वारा बस्तर दशहरा समिति के माध्यम से आयोजन किया जाता है।
बस्तर मेें दशहरा पर्व की शुरूआत 28 जून 1962 को काक्षनगादी के जुलूस के साथ 16 दिवसीय दशहरे का कार्यक्रम शुरू हुआ। बस्तर की परंपरा के प्रतिकुल भूतपूर्व बस्तर महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव समस्त कार्यक्रमों का नेतृत्व कर रहे थे। यद्यपि भतपूर्व महाराजा की धारणा थी कि जिले के आदिवासी अभी भी उन्हें अपना राजा मानते है। इसलिए दशहरे के नेतृत्व का अधिकार उन्हीं का है। भूतपूर्व महाराजा के समर्थन से विजयी विधानसभा तथा लोकसभा के सदस्य व्यवस्था कर रहे है। ऐहितियात के लिए जिला मजिस्ट्रेज ने दशहरे उत्सव के लिए अवधि तक 140 धारा लागू करके लाठी, तथा तीन-धनुष एवं अस्त्र-शस्त्र लेकर शहर में आने की रोक लगा दी थी। शांति पूर्वक दशहरा मनाने की आदिवासी को छूट दी गई थी। उस समय शांति से कार्यक्रम संचालित हो रहे थे। और 30 जून 1962 से प्रतिदिन रथयात्रा हो रही है। और भूतपूर्व महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव रथ पर सवार होकर एक प्रमुख मार्ग से रथ की परिक्रमा करके राजमहल वापस आ जाते थे। बस्तर दशहरे के तब और अब के रथ के चालन में बदलाव आया है। इसी बीच 1962 में महारानी वेदवती के आगमन की खबर सुनकर आदिवासियों में हर्ष की लहर आइ गई। और उनके भव्य स्वागत की तैयारी की थी। प्रशासन ने कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस को सक्रिय किया था। उसी दौरान 5 दिन रथ का चालन संपन्न हुआ था। इस बीच जवाहर लाल नेहरू उन्होंने राजा प्रवीर को कांग्रेस में लाने का प्रयास किया। किंतु महाराजा के चेले लखु भवानी बस्तर क्षेत्र से निर्दलयी उम्मीदवार राजा प्रवीरचंद के समर्थन से विजयी श्री हासिल की थी। उस दौरान बस्तर जिला विभाजन नहीं हुआ था इसलिए बस्तर जिला विधानसभा लोकसभा में मान्य था।
उल्लेखनीय है कि बस्तर के राज परिवार के कुलदेवी मां दंतेश्वरी के मुख्य पुजारी के रूप में राज परिवार आदिवासियों व वनवासियों के बीच मां दंतेश्वरी के प्रति आगाज श्रद्धा एवं राजपरिवार का वनवासियों एवं आदिवासियों के प्रति विश्वास और विद्रोह न हो इसलिए राज्य सरकारों ने इस विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे के स्वरूप को नहीं बदला। स्व. राजा प्रवीरचंद के गोलीकांड में मरने के बाद दशहरे की कमान दशहरा समिति को सौंप दी जाती है और शासन के अनुदान से बस्तर दशहरा मनाया जा रहा है।