(अर्जुन झा)
सीधे रस्ते की ये, टेढी सी चाल है,… यह फिल्मी गाना राजनीति पर एकदम सटीक बैठता है। यह बात अलग है कि कोई इसे महसूस करें अथवा न करे।राजनीति में जो होता है, वह दिखता नहीं है और जो दिखता है वह राजनीति है ही नहीं। बात छत्तीसगढ़ के संदर्भ में की जाए तो यहां कांग्रेस के दो धुरंधर आपस में शह और मात का जो खेल, खेल रहे हैं, उसे देखने वाले यह कह सकते हैं कि सत्ता की बाजी उसी के हाथ लगती है जो दमखम दिखा देता है। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस राजनीति में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। लोग यह भी कह सकते हैं कि वर्ष 2018 के चुनाव में बराबरी से मेहनत करके कांग्रेस को सत्ता दिलाने के बाद कांटे के मुकाबले में बराबर के वजनदार महसूस होने वाले भूपेश बघेल और टी एस सिंहदेव के बीच जो कुछ भी हुआ, उसमें हर बार भूपेश बघेल ने बाजी मारी। लेकिन राजनीति में कभी-कभी कुछ गलतियां आगे चलकर अनुभव देती हैं और यदि उन गलतियों को सुधार लिया जाए तो भविष्य के लिए एक आधार निर्धारित हो जाता है। जब यह तय हो गया था कि भूपेश बघेल कांग्रेस सरकार के नेता होंगे तो टी एस सिंहदेव को उनके मंत्रिमंडल में शामिल होना ही नहीं चाहिए था। इस तरह की भी चर्चाएं सामने आती रही हैं कि ढाई ढाई साल का फार्मूला तय हुआ था। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो फार्मूला तय करने वाले और जिनको लेकर यह फार्मूला तय हुआ था, वही बता सकते हैं। लेकिन जब कमान भूपेश बघेल को सौंप दी गई थी तो टी एस सिंहदेव को उनके अधीन मंत्री बनने की जरूरत क्या थी? उनकी पहली पसंद यह होना चाहिए थी कि संगठन के सूबेदार बनें। ऐसी स्थिति में संतुलन स्थापित हो सकता था। सत्ता में शामिल होना अलग बात है। सत्ता का सिरमौर होना अलग बात है और संगठन के मुखिया बनकर सत्ता को नियंत्रित करने का हौसला दिखाना अलग बात है। यदि टी एस सिंहदेव सत्ता में शामिल होने की जगह संगठन के सरदार बनने की पेशकश करते तो उन हालात में यह सौ फ़ीसदी संभव था कि उन्हें छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान मिल जाती। सिंहदेव ने उस वक्त वह गलती की, जो उन्हें नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन यदि गलती सुधारने की सुध आ जाए तो गलती सुधारने के लिए जो भी बन पड़े, वह करना चाहिए। शायद टीएस सिंहदेव इस वक्त यही कर रहे हैं। वह अब मुख्यमंत्री तो बनने से रहे। उन्हें बनना भी नहीं चाहिए और ऐसे कोई आसार भी नहीं हैं कि भूपेश बघेल को हटाकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम कांग्रेस नेतृत्व उठाएगा। यह जोखिम पंजाब में उठाया गया और परिणाम सामने है कि वहां कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। राजनीति में गलतियों से सबक लिया जाता है। जो गलती कांग्रेस नेतृत्व ने पंजाब में की, उसे दोहराए जाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होना चाहिए। बात चल रही थी कि टी एस सिंहदेव का भविष्य क्या होगा और क्या होना चाहिए तो राजनीति में राजनेता अपना भविष्य खुद बनाते और बिगाड़ते हैं। बिगड़ी हुई को बनाना भी राजनेताओं को आना चाहिए। टीएस सिंहदेव अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। अनुभवी हैं तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया होगा। नहीं हुआ हो तो हो जाना चाहिए। राजनीति में स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं होती लेकिन कोई अपना स्थायित्व आसानी से त्यागता भी नहीं है और त्यागना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जिसे जो मिलता है, वह उसके पराक्रम का प्रतिफल होता है। भूपेश बघेल को जो मिला, वह उनके पराक्रम का प्रतिफल है। टी एस सिंहदेव को जो मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला तो इसके लिए भूपेश बघेल का कोई दोष नहीं है। राजनीति में जैसा, जब, जो, जहां हो सके, अनुभव के आधार पर लाभ उठा लेना चाहिए। ज्यादा पाने की लालच में यदि वैकल्पिक लाभ भी खो दिया जाए तो इसे राजनीति में चातुर्य नहीं माना जा सकता। यदि टी एस सिंहदेव ने भूपेश बघेल के अधीन मंत्री बनने की बजाय कथित ढाई ढाई साल के फार्मूले के तहत यह कोशिश की होती कि जब उनकी बारी आएगी, तब तक संगठन की कमान उन्हें सौंप दी जाए और यदि ऐसा हो जाता तो आज जो स्थिति है, कदाचित वह नहीं होती। समझा जा सकता है कि टी एस सिंहदेव ने मंत्री पद छोड़ने की जगह अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए केवल एक विभाग त्याग दिया। उनका वह त्याग मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्वीकार कर लिया है। जानकार बताते हैं कि ऐसा भूपेश बघेल ने यूं ही नहीं किया होगा। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि वस्तु स्थिति से नेतृत्व को परिचित कराएंगे और जैसा भी आदेश होगा, जैसा भी मार्गदर्शन होगा, वैसा होगा। जाहिर है कि उन्हें जो निर्देश मिले होंगे, उन्हीं के आधार पर टी एस सिंहदेव का पंचायत विभाग रविंद्र चौबे को सौंप दिया गया है। यह भी कहा जा रहा है कि टी एस सिंहदेव अब क्या यही चाहेंगे कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस संगठन की कमान सौंप दी जाए। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि टी एस सिंहदेव एक विभाग छोड़कर दिल्ली में इसलिए सक्रिय हैं कि मोहन मरकाम का कार्यकाल पूरा होने के बाद अब उन्हें प्रदेश संगठन की बागडोर मिल जानी चाहिए। यदि सिंहदेव सफल हो जाते हैं तो यह उनकी भविष्य की राजनीति के लिहाज से एकदम अनुकूल होगा। अन्यथा वे अब तक जो वजनदारी रखते थे, वह एक विभाग छोड़ने के बाद खो चुके हैं। प्रदेश संगठन की कमान मिलने के बाद वह अगली बार के लिए एक सशक्त दावेदार बन सकते हैं। माना जा सकता है कि मौजूदा हालात में टी एस सिंहदेव की सबसे बड़ी आशा यही हो सकती है कि संगठन की कमान उन्हें हासिल हो जाए। यदि ऐसा होता है तो छत्तीसगढ़ की कांग्रेस राजनीति में सत्ता और संगठन के दो अलग-अलग केंद्र बन सकते हैं। वरना सत्ता और संगठन पर भूपेश बघेल की जो पकड़ है, वह आने वाले कल में सिंहदेव को कहीं का भी नहीं रहने देगी।